ज्ञानमुद्राः अंगूठे और तर्जनी अंगुली के उपरी पोरों को आपस में स्पर्श कराने से यह मुद्रा बनती है। इसका नित्य अभ्यास करने से स्मरण शक्ति और एकाग्रता बढ़ती है। आज के तनाव भरे जीवन में यह मुद्रा तनाव से मुक्ति दिलाती है। विद्यार्थियों के लिए तो अत्यंत लाभप्रद है। इससे मस्तिष्क की दुर्बलता दूर होती है और पढ़ाई में मन लगता है। मन मस्तिष्क के तनाव से उत्पन्न अनेक रोग दूर होते हैं। नींद अच्छी आती है। क्रोध और चिड़चिड़ाहट दूर होती है। मानसिक शक्ति बढ़ने से मनुष्य में बड़े-बड़े कार्य करने की क्षमता का विकास होने लगता है।
अपानमुद्राः दूसरी और तीसरी अंगुली को अंगूठे से स्पर्श कराने पर अपानमुद्रा बनती है। इस मुद्रा का प्रभाव तुरंत होता है। इसके अभ्यास से गुदा, लिंग, कटि, नाभि, जांघ, पिंडली के रोग दूर होते हैं। पेट की वायु, बवासीर, कब्ज, दस्त जैसे रोग दूर होते हैं। मधुमेह, दिल के रोग, उच्च रक्तचाप, सिरदर्द, अनिंद्रा, दांतों के रोग दूर होते हैं। बैचेनी व घबराहट दूर होती है। इसके निरंतर अभ्यास से शरीर के विजातीय विष निकल जाते हैं और शरीर स्वच्छ होता है। अगर किसी का मूत्र रुक जाए तो इस मुद्रा से वह ठीक हो जाता है।
प्राणमुद्राः तीन और चार नम्बर की अंगुलियों को अंगूठे से स्पर्श कराने पर यह मुद्रा बनती है। इससे शरीर में ऊर्जा की वृद्धि होती है। अन्नजल त्यागने वाले और उपवास करने वाले इस दौरान इस मुद्रा से शक्ति अर्जित कर सकते हैं। इसके अभ्यास से रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ती है। प्राणशक्ति प्रबल होने से रोग नजदीक नहीं फटकते। यह नेत्र ज्योति भी बढ़ाती है। चश्मे का नंबर घटाने के लिए इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। यह आत्मबल का विकास करती है। हृदयरोगों में भी यह लाभदायक है।
पृथ्वीमुद्राः अनामिका अर्थात तीसरे नम्बर की अंगुली को अंगूठे से स्पर्श कराने पर पृथ्वीमुद्रा बनती है। पृथ्वी जननी अर्थात माता है और सदा पोषण करती है। यह मुद्रा संकुचित विचारों में परिवर्तन लाकर प्रसन्नता, उदारता उत्पन्न करती है। पृथ्वीमुद्रा के नियमित अभ्यास से शरीर का पोषण होता है। दुर्बलता दूर होती है। जीवनी शक्ति बढ़ती है। पांवों का कांपना और कमजोरी दूर होती है। शरीर धीरे-धीरे बलवान होने लगता है। दुबले पतले लोगों को इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए, इससे उनका वजन बढ़ सकता है। पृथ्वी मुद्रा लोगों को प्राणदान करती है और निरोगीजनों को अपूर्व आनंद देती है। इससे रोम-रोम में ओज का संचार होता है। विटामिनों की कमीं भी दूर होने लगती है। शरीर का वजन संतुलित होने लगता है। व्यक्ति में सहिष्णुता का विकास होने लगता है। इस मुद्रा का अभ्यास लंबे समय तक किया जा सकता है।
वरुणमुद्राः अंतिम अंगुली और अंगूठे के स्पर्श से यह मुद्रा बनती है। यह शरीर में जल का संतुलन कायम करती है। चर्मरोग दूर करती है। त्वचा पर कांति लाती है। शरीर का रूखापन दूर होता है। इसके नियमित अभ्यास से शरीर में जलतत्व की कमीं से होने वाले रोग दूर हो जाते हैं। खून की कमीं भी इससे दूर होती है। एनिमिया के रोगियों को इस मुद्रा का अभ्यास करना चाहिए। जिनकी कफ प्रकृति हो उन्हें इस मुद्रा का अधिक अभ्यास नहीं करना चाहिए।
आवश्यक निर्देशः मुद्राएं तो और भी बहुत हैं। लेकिन अगर हम इन पांच मुद्राओं का ही नियमित अभ्यास कर लें तो अपने शरीर को स्वस्थ और फिट रख सकते हैं। ये बिना दवा का इलाज है। जिसे सहज ही किया जा सकता है। छोटे-बड़े, स्वस्थ व बीमार सभी इसे कर सकते हैं। मुद्रा कम से कम 15-20 मिनट और अधिक से अधिक 40 मिनट करनी चाहिए। आरंभ में अधिक देर नहीं कर सकें तो दस मिनट करें और धीरे-धीरे समय बढ़ाते जाएं। एक साथ नहीं कर सकें तो दिन में दो-तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर कर सकते हैं।
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