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शनिवार, 3 जनवरी 2015

चवालीस साल एक मिसाल

चवालीस साल एक ही संस्थान में और एक जैसा कार्य करना सचमुच एक मिसाल है। महेशभाई (जोशी) ने कमेंट लिखा हिंदी पत्रकारिता में यह एक रिकार्ड हो सकता है। मेरे खयाल से मेरे गुरु ठाकुर जयसिंह ने मुझसे अधिक समय टीपी डेस्क पर कार्य किया। तारीखें तो पता नहीं लेकिन वे मृत्यु पर्यंत कार्यशील रहे। कमलेश सेन संदर्भ देख कर तारीखें बता सकते हैं। ठाकुर जयसिंह भी एक मिसाल थे। समय पर आना, कम से कम छुट्टी लेना, सभी को हंसते हंसाते रहना। मेटल कम्पोजिंग के युग में कम्पोजिटर कहते ठाकुर साहब आठ लाइन की जगह बची है पेज में एक छोटी खबर दे दीजिए। और ठाकुर साहब उतनी ही बड़ी खबर लिख कर देते थे, ऐसा था उनका अंदाज। अब तो कम्प्यूटरजी वर्ड काउंट बता देते हैं। उन दिनों कहां थी ऐसी सुविधाएं। सुगठित कापी लेखन मैंने उनसे और महेशभाई से ही सीखा। महेशभाई और मेरे अक्षर सुंदर थे, देर रात को अगर कोई महत्वपूर्ण खबर आ जाती और कम्पोजिंग का समय नहीं बचता तो हम हाथ से लिखी खबर पेज में लगवाते थे। सुबह अखबार में उसी खबर पर पाठकों की पहले नजर पड़ती थी।
नईदुनिया के पुराने दफ्तर में ठाकुर जयसिंह और निकट फोन पर बात करते मैं
 चवालीस साल में मेरे बयालीस साल टीपी डेस्क पर ही गुजरे। कभी कभी राजेन्द्र माथुर जिन्हें सब प्यार से रज्जूबाबू कहते थे, हमारी डेस्क पर आते और डिक्शनरी सही सलामत देख कहते ठाकुर साहब आपकी डिक्शनरी फटी नहीं, लगता है इसका उपयोग कम होता है। वे कहते डिक्शनरी फटते रहना चाहिए। रज्जूबाबू शब्दानुवाद की अपेक्षा भावानुवाद पर जोर देते थे। ठाकुर जयसिंह इस कला में माहिर थे, क्योंकि वे अच्छे लेखक भी थे। अनेक कहानियां और नाटक लिखे। वे भी क्या दिन थे सब लोग समर्पण भाव से कार्य करते थे। आज की तरह नौकरी नहीं करते थे। एक बार चर्चा छिड़ी हमने रज्जूबाबू से कहा-हम तन, मन और धन से कंपनी की सेवा करते हैं। रज्जूबाबू बोले तन-मन की बात तो ठीक है लेकिन धन वाली बात गले नहीं उतरती। हमने कहा-ओवर टाइम करते हैं और अन्य महकमों के बाबुओं की तरह ओवर टाइम का पैसा नहीं लेते। रज्जूबाबू ठहाका मार कर बोले बिल्कुल सही है। तब काम करने का माहौल ही कुछ और था। कारपोरेट क्लचर ने पैर नहीं पसारे थे। पारिवारिक माहौल में काम होता। सभी का एक ही लक्ष्य आज का अखबार कैसे अच्छा निकले। हमारा एक चाटू क्लब चलता था। रोज शाम को चंदा इकट्टा कर तिलोकचंद स्कूल के सामने महाशयजी की दुकान से सेंव, चरखे परमल, चिवड़ा मिला कर मंगवाते और अखबार बिछा कर टेबल पर उसका ढेर लगा देते। इसे हम बाटा कहते थे। यदाकदा अभयजी, रज्जूबाबू , महेन्द्रजी भी इस दावत में शरीक होते थे। कभी चंदा कम पड़ जाता तो हम इनसे भी झटक लिया करते थे। बाबा (राहुलजी) को भी बाटा पंसद था, उन्हें हम एक कागज में उनकी टेबल पर पहुंचा देते थे। यह परंपरा दफ्तर के कार्पोरेट स्वरुप में बदलने तक जारी रही। एक बार प्रभाषजी दिल्ली से आए तो शाम के वक्त दफ्तर में थे पूछने लगे बाटा अब आता है या नहीं। हमने कहा थोड़ी देर रुकिए अभी आ जाएगा। और उन्होंने भी उस दिन इसका लुत्फ उठाया। चवालीस साल कैसे गुजर गए, पता ही नहीं चला। घर- परिवार के बाद व्यक्ति का दूसरा परिवार होता है दफ्तर परिवार। घर के बाद उसका सर्वाधिक समय यहीं गुजरता है। मगर अब ऐसा नहीं होता। लोग कपड़ों की तरह नौकरियां बदलते हैं। किसी से जान पहचान हो भी नहीं पाती और परिंदे की तरह दूसरी डाल पर उड़ जाते हैं। इसी को चतुराई और कौशल माना जाता है। रिश्तों का मूल्य नहीं रहा। हर बात पैसों से तौली जाती है। पैकेजिंग और पैकेज का जमाना है। सरलता, सहजता खोती जा रही है। अब चवालीस साल में चालीस कंपनियों का रिकार्ड बनता है।

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपके इस प्रचुर अनुभव का लाभ लोक कल्याण के लिए उपलब्ध हो और समाज को सद्धर्म के विषय में उपयुक्त दिशाअऔर मार्गदर्शन मिले ।

    आप स्वस्थ रहे । व्यस्त रहें । और इसी तरह लोगों को धर्म स्वास्थ्य और खानपान के विषय में गाइड करते रहे ।

    भला हो ।

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  3. Vikas Mishra commented on your स्थिति.
    Vikas ने लिखा: "सर प्रणाम
    पत्रकारिता ने बीते वर्षों में बदलाव की जो यात्रा की है उसे शीर्षक दिया जा सकता है~~ "गुरु से गॉडफादर तक". ऐसे दौर में निवृति बेहतर ही है।
    हम जैसे लोगों के लिये आप हमेशा गुरु रहे है। एक आदर्श पत्रकार रहें हैं। एक पूरी पीढ़ी को आपने संस्कारित किया।
    नईदुनिया के प्रति गजब का समर्पण। काश नईदुनिया समर्पण का सम्मान कर पाती। लेकिन सर, नईदुनिया अब है भी कहाँ?"
    Ramesh Verma ने लिखा: "वे दिन ! सुन्दर अभिव्यक्ति । आप जैसे निष्ठावान और कार्यकुशल सेवाभावी लोगों के परिश्रम से ही तब 'नई दुनिया ने लोक प्रियता पाई थी ।"
    Sanjay Telang commented on a कड़ी you shared.
    Sanjay ने लिखा: "ठाकुर साहब, प्रदीप दीक्षित और आपके साथ चित्र में मैं और काका भी हैं। माँगीलालजी तो छा रहे हैं।"
    Meena Rana Shah commented on your स्थिति.
    Meena ने लिखा: "बधाई सर जी ....नए वर्ष में जीवन की नई पारी नई जिम्मेदारियों की शुरुआत..."
    Devendra Sharma commented on your स्थिति.
    Devendra ने लिखा: "Sanjay bhai ne bilkul theek kahaa Hai ! patrakaarita me adig, ekaagr rachnaadharmitaa ke aap birle aur anoothe stambh hain . Aaj ki kshudr , dishaahin patrakaaritaa ko aapse maargdarshan lena chaahiye. Hum kanishthjan apne agraj Suresh bhai sahab ko sadaiv swasth, sakriy rahkar naye -naye kshitij gadhne ki shubh kaamnaayen dete hain !"
    Sanjay Patel commented on your स्थिति.
    Sanjay ने लिखा: "आपने बहुत मौन और धीरज के साथ नईदुनिया का आमुख सजाया।आप जैसे लोग कभी निवृत्त नहीं होते।मन की धुन कुछ न कुछ करवाती ही है।स्वस्थ रहें-मस्त रहें।दुआएं।"
    Sushobhit Saktawat commented on your स्थिति.
    Sushobhit ने लिखा: "सर, ऐसे चुपचाप क्‍यों चले गए। एक बार की राहुल बाबा वाली चाय और बनती थी।"

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  4. Shakeel Akhter mentioned you in a comment.
    Shakeel wrote: "Suresh Tamrakar सर प्रणाम। पत्रकारिता के क्षेत्र में आपका अमूल्य योगदान है। आपके श्रमसाध्य और सादे जीवन से हम सबने बहुत कुछ सीखा है। जैसे आदरणीय श्रीराम ताम्रकर जी से। मुझे लगता है अब आप होमियोपैथी और प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में और बेहतर शोध और सेवाएं दे पाएंगे। आशा है,पत्रकारिता के दीर्घ अनुभव पर आपकी किसी किताब के ज़रिये भी नई पीढ़ी को लाभ मिल सकेगा। ..और भी बेहतर और यशस्वी जीवन के लिए हम साथियों की तरफ से शुभकामना सर।"

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  5. Om Dwivedi commented on your स्थिति.
    Om ने लिखा: "सर बहुत शुभकामनाएँ।
    बेहतर और साहसिक फ़ैसला।
    सलाम।
    हम सब आपके बिना अधूरे रहेंगे।
    नई पारी शुभ हो।"

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  6. Jaideep Karnik commented on your स्थिति.
    Jaideep ने लिखा: "शानदार पारी, बेहतरीन योगदान...मेरी शुभकामना सर...."

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  7. Pradeep Sharma दुनिया वही है। पुरानी दुनिया में ही कुछ नया किया जाए । कीर्तिमान तो बनते रहते हैं।
    आप तो कीर्ति और मान दोनों से परे हैं। व्यवहारिक विपश्यना यही तो है।

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  8. Jai Parashar
    1 जनवरी को 09:45 अपराह्न बजे ·

    आपने 44 साल एक अखबार में गुजार दिए। परिवर्तन के कई ज्वार भाटे आते जाते रहे। आने वाले दिनों में लोग ताज्जुब करेंगे।

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  9. ठाकुर साहब के साथ मैंने भी आपके संस्थान की सैर की थी । तब अखबार 10 पैसे में मिलता था । पहला पन्ना बाद में आप ही संभालने लगे । 44 साल का निरंतर सान्निध्य ......और उसके बाद भी

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