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शनिवार, 11 मई 2013

बकरे के खून का एनिमा थेलेसेमिया में वरदान

आयुर्वेद चिकित्सा के ज्ञान का अपूर्व भंडार है। आधुनिक चिकित्सा शास्र में जिन रोगों की कोई दवा नहीं है, आयुर्वेद पांच हजार साल पहले ही उनका निदान व उपचार बता चुका है। हाल ही अखबार में खबर पढ़ने को मिली कि अहमदाबाद के शासकीय अखंडानंद आयुर्वेद अस्पताल के डा.अतुल भावसार ने थेलेसेमिया पीड़ित बच्चों को बकरे के खून का एनिमा देकर उनका उपचार किया। उपचार की यह विधि उन्होंने आयुर्वेद के आदि ग्रंथ चरक संहिता से खोजी। महर्षि चरक ने बकरे के रक्त की वस्ति का अजारक्त वस्ति के नाम से जिक्र किया है। यह पद्धति थेलेसेमिया पीड़ितों के लिए वरदान हो सकती है। थेलेसेमिया में रक्त कणिकाएं टूटने लगती हैं, जिससे हिमोग्लोबिन घटता है। बकरे के खून में रक्त कणों की मात्रा अधिक होती है। इसकी संरचना जटिल होने से रक्त कण आसानी से नहीं टूटते। डा.भावसार ने विभिन्न प्रदेश के कोई 130 पीड़ित बच्चों का इस पद्धति से उपचार किया। थेलेसेमिया पीड़ितों को हर दो हफ्ते में दो तीन बोतल मानव रक्त चढ़ाना पड़ता है। यह प्रक्रिया महंगी और साथ ही जटिल भी है। जबकि बकरे के खून का एनिमा दो से तीन माह में देना पड़ता है। बकरे का रक्त स्लाटर हाऊस से मुफ्त मिल जाता है। बकरे का खून एनिमा द्वारा बड़ी आंत तक पहुंचाया जाता है, जहां से रक्तकणों को अवशोषित कर लिया जाता है। डा. भावसार का दावा है कि इससे किसी प्रकार का संक्रमण भी नहीं होता और हिमोग्लोबिन घटने की फिक्र भी नहीं रहती। आधुनिक चिकित्सा शास्त्रियों को इस दिशा में और शोध करना चाहिए। अगर यह पद्धति सचमुच कारगर है तो थेलेसेमिया पीड़ितों के लिए वरदान साबित हो सकती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद को भी इस पर बड़े पैमाने पर शोध करना चाहिए।

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