सर्वे भवंतु सुखिन, सर्वे संतु निरामय। अगर हम एक आदर्श जीवनशैली अपना लें, तो रोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। मैंने अपने कुछ अनुभूत प्रयोग यहां पेश करने की कोशिश की है। जिसे अपना कर आप भी स्वयं को चुस्त दुरुस्त रख सकते हैं। सुझावों का सदैव स्वागत है, कोई त्रुटि हो तो उसकी तरफ भी ध्यान दिलाइए। ईमेल-suresh.tamrakar01@gmail.com
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सोमवार, 16 जनवरी 2012
बथुआ की आई बहार
ठंड के दिनों में बथुआ की सब्जी बहुतायत से मिलती है। यह पालक की तरह गुणकारी है। इसका लेटिन नाम chenopodium album है। होमियोपैथी में इस नाम से दवा भी है। बथुआ बड़ा स्वादिष्ट और पौष्टिक है। कल मैंने जिस किसान से खरीदी वह कहने लगा-बाबूजी मैं तो खूब बथुआ खाता हूँ। कभी बीमार नहीं पड़ता। हम बथुआ सूखा कर रख लेते हैं, जब सीजन चला जाता है, तब सूखी भाजी की साग बना कर या दाल में डाल कर खाते हैं। बथुआ में प्रोटीन बहुत होता है। विटामिन ए, पोटेशियम, फासफोरस, केल्शियम, आयरन का भी यह भंडार है। इसमें स्वर्ण तत्व भी होता है। यह आमाशय को बलवान बनाता है, गर्मी से बड़े हुए यकृत को ठीक करता है और पथरी होने से बचाता है। डा.गणेश नारायण चौहान ने अपनी पुस्तक भोजन द्वारा चिकित्सा में दो पृष्ठों में विस्तार से बथुआ के गुणों का बखान किया है। यह नेत्र ज्योति वर्धक, शुक्रवर्धक है और आमवात को दूर करता है। घुटनों के दर्द में बथुआ पानी में उबाल कर इस उबले पानी में कपड़ा भीगा कर घुटनों पर गर्म-गर्म सेंक करने से लाभ होता है। साथ ही बथुआ की साग रोगी को रोज खिलाएं। पेट के अनेक रोगों की बथुआ अक्सीर दवा है। कब्ज दूर करता है। बड़े हुए यकृत व तिल्ली को ठीक करता है। अजीर्ण, गैस, पाइल्स(बवासीर) जैसे रोग, नियमित बथुआ खाने वाले के पास नहीं फटकते। पथरी और मूत्र रोगों में बथुआ को पानी में उबालकर छान कर इस पानी का सेवन करना लाभदायक माना जाता है।
बथुआ को साफ कर पालक की तरह पका कर खाइए या उसमें थोड़ा दही मिला लें तो स्वाद और बढ़ जाता है। इसका रायता और पराठे भी बनाए जाते हैं। पराठे बनाने के लिए इसे बारीक काट कर आटे में मिला लें या फिर पहले पका कर पिट्ठी बना कर पूरनपोली की तरह आटे में भर कर भी बनाए जा सकते हैं। आजकल बच्चे भाजी पाला कम ही पसंद करते हैं। लेकिन बथुआ के पराठे वे शौक से खा सकते हैं। हमारी माँ कहती थी कि हर मौसम में आने वाली साग खाना चाहिए। निमाड़ में एक अमाड़ी की भाजी भी मिलती है। वह भी अरहर की दाल के साथ बनाई जाती है और बड़ी स्वादिष्ट होती है। पुराने समय में नायलोन की रस्सियाँ नहीं होती थी। किसान खेती के काम में रस्सी के लिए अमाड़ी या सन (जूट) की फसल भी खेतों में कुछ मात्रा में बोते थे। नायलोन की रस्सी के चलन और यंत्रीकरण ने पुराने समीकरण बदल दिए। अब अमाड़ी कम ही बोई जाती है।
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