सर्वे भवंतु सुखिन, सर्वे संतु निरामय। अगर हम एक आदर्श जीवनशैली अपना लें, तो रोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। मैंने अपने कुछ अनुभूत प्रयोग यहां पेश करने की कोशिश की है। जिसे अपना कर आप भी स्वयं को चुस्त दुरुस्त रख सकते हैं। सुझावों का सदैव स्वागत है, कोई त्रुटि हो तो उसकी तरफ भी ध्यान दिलाइए। ईमेल-suresh.tamrakar01@gmail.com
कुल पेज दृश्य
गुरुवार, 5 जनवरी 2012
हाट के ठाठ
हाट हिन्दुस्तान की जान है और शान हैं। ग्रामीण अंचल से लेकर शहरों तक हाट आज भी लगते आ रहे हैं। शहरों में कहने को भले ही माल बन गए हों लेकिन हाट की संस्कृति भी जीवित है। हाट में सब कुछ मिल जाता है, सुई धागे से लेकर तो बर्तन-भांडे तक। फल और सब्जियाँ ताजी मिलती है। गाँवों से किसान सीधे हाट में बेचने आते हैं। हाट में खरीदने के लिए अमीर-गरीब सब आते हैं। कार वाले भी अपनी कारों में भरकर हफ्ते भर की फल तरकारी ले जाते हैं। एक बार दिलीप चिंचालकर मिल गए। एक दफा प्रसिद्ध अर्थशास्त्री वीडी नागर को भी मैंने हाट में मोलभाव करते देखा था। मुझे याद है हम बच्चे माँ की उंगली पकड़ कर खरगोन के हाट में जाते थे। नदी के उस पार हर गुरुवार को हाट लगता था। तब वहाँ नया पुल नहीं बना था। नाव में बैठ कर नदी पार करने में डर भी लगता था और मजा भी आता था। माँ से जिद कर हम गन्ने, रतालू, बेर, गाजर और होले(चने के छोड़)माँगते थे। ये चीजें मिल गई तो ऐसा लगता मानों दुनिया जहान का खजाना मिल गया। घर लौटते ही दाँतों से छील कर गन्ने खाते। बिना डाक्टर के दाँतों की सफाई हो जाती थी।
ज्यादा गन्ने खाने से कईं बार मुँह भी छील जाता था। फिर खाना खाते समय मिर्च का एहसास ज्यादा होता। अब बच्चे मम्मी-पापा के साथ माल जाते हैं और पापकार्न, कुरकुरे व नूडल्स टाफी खरीदने की जिद करते हैं। जो दाँत और आँत दोनों की सेहत खराब कर देते हैं। जरा सोचिए इनकी तुलना में हमारे गन्ने, गाजर, रतालू,छोड़ और बेर कितने अच्छे और पौष्टिक होते थे। इंदौर में इतवार को जिंसी व इतवारिया में हाट भरता है। नवलखा में गुरुवार को हाट भरता है। लेकिन अब हाट के लिए उतनी अच्छी जगह नहीं बची है। सड़कों के किनारे बेचने वालों को जैसे-तैसे अपनी दुकान लगानी होती है। यातायात के भारी दबाव के बीच हाट से चीजें खरीदना बड़ा मुश्किल होता है। प्रशासन चाहे तो इसे व्यवस्थित कर सकता है। हाट में वाहन लेकर जाने की पाबंदी होनी चाहिए। पैदल चल कर सौदा खरीदो। वाहन को कहीं पार्क कर दो, लेकिन कहाँ करो? पार्किंग के लिए जगह ही नहीं होती। बहरहाल ऐसे ठाठ के साथ भी हाट चल रहे है और खूब मजे से चल रहे हैं। इस गुरुवार मैं अपने पोते आशय को लेकर हाट गया था। उसे हाट देख कर बड़ा मजा आया, शायद वैसा ही जैसे मुझे बचपन में माँ के साथ हाट जाने पर आया करता था। हाट में कुछ अच्छे भले लोग मिलते हैं तो कुछ ठग भी हैं। एक बार मैंने चुन-चुन कर एक किलो आँवले खरीदे और घर लौट कर थैली खोली तो उसमें सब दागी और सड़े आँवले निकले। फिर मुझे किसी ने बताया कि आँवले बेचने वाली बाई ने थैली बदल दी होगी। उसके पास पहले से रखी थैली उसने मेरे झोले में डाल दी। इसलिए जब चीजें खरीदें सावधानी रखें। वैसे मैं तो कबीरदासजी का अनुयायी हूँ, कबीरा आप ठगाइये, और न ठगिए कोय। आप ठगे सुख उपजे, और ठगे दुख होय।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें