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शुक्रवार, 30 दिसंबर 2011

रात गई फिर दिन आता है और साल बदल जाता है

दिन, महीना और साल सब मानव की बनाई परिधियाँ हैं। कुदरत ने न तो देश और राज्यों की सीमाएं बनाई और न ही रात और दिन को सप्ताह, महीनों और साल के खानों में बाँधा। हमने अपनी सुविधा के लिए यह सब प्रपंच रचा। साल समाप्त होने पर लोग रात-रात भर खाते-पीते व नाचते गाते हैं। कोई खुशियाँ मनाने घरों से दूर समुद्र के तट पर तो कोई पहाड़ों की चोटी पर जाता है। जाते हैं खुशियाँ मनाने, चुटकी भर खुशी मिलती नहीं और मुठ्ठी भर गम लेकर लौटते हैं। कुदरत ने हमें यह सुंदर धरती दी। चाँद, तारे और सूरज बनाया। सोने के लिए रात बनाई और काम करने के लिए दिन। लेकिन हम हैं कि सब उलटा-पुलटा करते रहते हैं। महान गीतकार शैलेन्द्र ने फिल्म बूटपालिश के लिए लिखे गीत में इसकी बड़ी सुंदर व्याख्या की है-..
रात गई फिर दिन आता है इसी तरह आते जाते ही ये सारा जीवन जाता है। कितना बड़ा सफर दुनिया का एक रोता एक मुस्काता है। ओ..ओ रात गई कदम-कदम ही रखता राही, कितनी दूर चला जाता है। एक-एक तिनके-तिनके से, पंछी का घर बन जाता है। ओ..ओ रात गई.. कभी अँधेरा कभी उजाला, फूल खिला फिर मुरझाता है। खेला बचपन हँसी जवानी, मगर बुढ़ापा तड़पाता है। सुख-दुख का पहिया चलता है, वही नसीबा कहलाता है। ओ..ओ रात गई.... शंकर-जयकिशन ने इसकी बड़ी सुरीली धुन बनाई है और मन्ना दा व आशाजी ने बच्चों के कोरस के साथ इसे स्वर दिया है। राजकपूर की बूटपालिश जीवन का फलसफा लिए एक शाश्वत रचना है।

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