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गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

झाड़ू तुझे सलाम

झाड़ू पचास रुपए में मिलने लगी। लोग हैरत से दाँतों तले उंगली दबाते हैं। नादान हैं बेचारे। झाड़ू की महिमा से
अनजान हैं। बचपन में झाड़ू को पैर लगने पर माँ हमें नसीहत देती थी-झाड़ू को लात नहीं मारते बेटा, यह लक्ष्मी है। तब हमारी बाल बुद्धि में माँ की बातें कम ही समझ आती थी। जब विवेक जागा तो समझे कि माँ कितनी सही थी। शायद इसीलिए दीपावली पर लक्ष्मी पूजन के साथ झाड़ू पूजने की प्रथा चली होगी। झाड़ू की महिमा बड़ी निराली है, प्रतिपल यह हमारे साथ जुड़ी है। गीता में कहा गया है कि संसार में रहते हुए संसार से निर्लिप्त रहो। गालिब ने भी लिखा है दुनिया में हूँ दुनिया का तलबगार नहीं हूँ, बाजार से निकला हूँ खरीददार नहीं हूँ। झाड़ू निर्लिप्तता का अनुपम उदाहरण है। घरबार का तमाम कूड़ा कचरा साफ करती है, मगर कचरे में खुद लिप्त नहीं होती। सदा निर्लिप्त रहती है। सोचिए अगर झाड़ू नहीं होती तो घर की क्या दशा हो गई होती। मैं रोज सुबह उठ कर आँगन बुहारता हूँ। बचपन में माँ को ऐसा करते देखा करता था। फिर जब माँ अधिक बूढ़ी हो गई तो भाभी माँ ने झाड़ू संभाल ली। झाड़ू लगाने में योग का दोहरा लाभ मिलता है। आसन भी सधते हैं और ध्यान भी हो जाता है। विनोबाजी कहते थे-बाबा झाड़ू लगाते-लगाते ध्यान करता है।
झाड़ू लगाते समय सारा ध्यान कचरे पर केन्द्रित रहता है, कोई तिनका छूट न जाए। झुकते हैं तो पाद हस्तासन होता है। शरीर और जीवन के साथ सदैव जुड़ी रहती है झाड़ू। सुबह उठते हैं कुल्ला करते हैं तो मुँह की झाड़ू, ब्रश करते हैं तो दाँतों की झाड़ू, खाली पेट जल पान करते हैं तो पेट और आँतों की झाड़ू। श्वास-प्रश्वास में भी सतत झाड़ू चलती रहती है, आक्सीजन लेना और कार्बन डायआक्साइड छोड़ना। बीमार होने पर प्राकृतिक चिकित्सक एनिमा लगाकर पेट की सफाई करते हैं। यहाँ भी विद्यमान है झाड़ू। हमें भोजन में फाइबर वाले तत्व लेने की सलाह दी जाती है ताकि पेट में लगती रहे झाड़ू। योग की नेती और वस्ति भी झाड़ू ही है। धमनियों में कोलेस्ट्रोल रूपी कचरा जमा होने पर डाक्टर भी सर्जरी एवं दवा से झाड़ू लगाते हैं। प्रवचन का श्रवण और सद साहित्य का पठन वैचारिक झाड़ू का कार्य करते हैं। नकारात्मक और बुरे विचारों को बुहार कर मन को निर्मल कर देते हैं। लोग वर्ण व्यवस्था को मनुवादी कह कर व्यर्थ विवाद करते हैं। वर्ण व्यवस्था हमारे जीवन और शरीर की सहज स्वाभाविक स्थिति है। हर व्यक्ति दिन भर जीवन में शुद्र, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राम्हण की भूमिका किसी न किसी रूप में अदा करता रहता है। जरा सोचिए एक-एक तिनके को एकजुट कर झाड़ू का स्वरुप देने में कितना श्रम और कौशल लगता है। अगर उसका मूल्य हम पचास रुपए देते भी हैं तो कौन बड़ी बात है। तो उठाइये झाड़ू और बुहार दीजिए कचरा। झाड़ू लगाने वाले का सारा अहंकार गल जाता है।

1 टिप्पणी:

  1. निरंजन शर्माजी ने यह टिप्पणी पोस्ट की है-

    झाड़ू एक प्रवचन की तरह है. रोज दो. वहीं दो. वैसे ही दो. फिर भी जरूरत पड़ती है.
    झाड़ू निर्लिप्त तो नहीं होती 'चढ़ावे' का कुछ हिस्सा उसे भी मिलता है.
    करीने ( करीना) से झाड़ू लगाई जाए तो झाड़ू लगाने वाली से लिप्त होने की संभावना है....

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