कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 8 नवंबर 2011

वाह भूपेन दा


किसी कलाकार के अंतिम दर्शन के लिए इतना जनसैलाब उमड़ते पहली बार देखा-सुना। तीन-तीन किलोमीटर लंबी लाइनें लगी रहीं। इसलिए अंतिम संस्कार एक दिन आगे बढ़ाना पड़ा। मैंने तो अपने जीवन में ऐसा वाकया पहली बार देखा। किसी कलाकार की महानता का इससे बड़ा भला क्या सबूत होगा। भूपेन दा का व्यक्तित्व लार्जर देन लाइफ था। सच्चे कर्मयोगी ऐसे ही होते हैं। ताउम्र वे गीत-संगीत और सृजन साधना में रमे रहे। जो भी रचा दिल से रचा। यह भी एक तरह की तपस्या है। तप केवल पालथी मार कर ध्यान करना ही नहीं होता। कोई अपना कर्म कितनी ईमानदारी और ध्यानपूर्वक करता है वह भी एक तप है। विनोबाजी कहते थे बाबा (वे स्वयं) झाड़ू लगाते-लगाते भी ध्यान करता है। हम खुशनसीब हैं कि भूपेन दा, जगजीतसिंह, लताजी, आशाजी, किशोर दा, मुकेश भाई और रफी साहब के युग में जीवन मिला। रहें न रहें हम महका करेंगे, बनके कली, बनके सबा..। इनके ऐसे अनगिनत नगमें दिन-रात हमारे साथ हैं। और पीढ़ी दर पीढ़ी गाए सुने जाते रहेंगे। आज के अखबार में रचनाधर्मिता की एक मिसाल और मिली। जयप्रकाश चौकसेजी के कालम परदे के पीछे को सत्रह बरस हो गए। क्या कमाल है सत्रह साल से एक व्यक्ति बिला नागा प्रतिदिन एक कालम लिख रहा है। हिन्दी सिने पत्रकारिता की यह अदभुत मिसाल है। नईदुनिया के संपादकीय विभाग में मेरे वरिष्ठ थे ठाकुर जयसिंह। उन्होंने ४५ वर्ष तक लगातार नईदुनिया के प्रथम पृष्ठ का संपादन किया। कम से कम छुट्टी लेते, बीमार भी नहीं होते थे। मृत्यु पर्यंत वे संपादन सृजन में लगे रहे। वे साहित्यकार भी थे और अनेक कहानियाँ व नाटक लिखे। उनके बारे में एक बार श्री राजेन्द्र माथुर ने कहा था-ठा.जयसिंह की कलम ने जितने अक्षरों को स्याही दी उसकी मिसाल नहीं है। उनकी मृत्यु भी बड़ी सुखद हुई थी। आकाशवाणी में प्रभु जोशी के साथ वार्ता रिकार्ड करा रहे थे। वहीं दिल का दौरा पड़ा और प्राणांत हो गए। ऐसे बेमिसाल लोगों से यह भारत भूमि भरी पड़ी है।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें