सर्वे भवंतु सुखिन, सर्वे संतु निरामय। अगर हम एक आदर्श जीवनशैली अपना लें, तो रोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। मैंने अपने कुछ अनुभूत प्रयोग यहां पेश करने की कोशिश की है। जिसे अपना कर आप भी स्वयं को चुस्त दुरुस्त रख सकते हैं। सुझावों का सदैव स्वागत है, कोई त्रुटि हो तो उसकी तरफ भी ध्यान दिलाइए। ईमेल-suresh.tamrakar01@gmail.com
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बुधवार, 31 अगस्त 2011
मोदक मनमोहक
गणेश चतुर्थी और सोलह सोमवार व्रत की पूर्णाहुति पर माँ मोदक बनाती थी। बड़ा स्वादिष्ट लगता था। जी करता बस खाते ही रहो। हम सब बच्चे भर-भर पेट मोदक खाते थे। सारे मोहल्ले में मोदक बाँटा जाता था। कभी इस घर में तो कभी उस घर में सोलह सोमवार व्रत की पूर्णाहुति बारहों महीने चलती रहती थी। जिस दिन यह प्रसंग होता, मोहल्ले भर के बच्चों की मौज रहती। मोदक के लिए माँ सुबह उठ कर हाथ से चलने वाली चक्की में आटा पीसती थी, जिसे घट्टी कहते हैं। इस आटे को दूध में साना जाता था। फिर उसके बड़े-बड़े बाटीनुमा रोट बनाए जाते। रोट को कंडे(उपले) की आग पर धीमे-धीमे सेंकते थे। अच्छी तरह सिंकने पर गर्म-गर्म ही खलबत्ते में कूटते जाते। कूटने के बाद मोटी छननी से छानते। छने हुए भाग में गुड़ और शुद्ध घी मिला कर मोदक तैयार होता था। मोदक देख कर ही मुँह में पानी आने लगता। ऐसी इच्छा होती कि झट से थोड़ा चट कर जाओ। लेकिन पूजा होने तक माँ इसे हाथ भी नहीं लगाने देती थी। हम पेट के पुजारी बेसब्री से पूजा का इंतजार करते रहते। पता नहीं कब पूजा होगी। यह पंडितजी भी जल्दी क्यों नहीं आते बहुत देर से आते हैं। जब पंडितजी आ जाते तो पूजा खत्म होने का इंतजार रहता। बहुत लंबी लगती थी वह पूजा। खैर पूजा खत्म होते ही आरती होती और फिर प्रसाद के रूप में मोदक का वितरण। सचमुच बहुत ही मोहक होता था वह मोदक। अब तो उसके स्वाद की याद ही बाकी है।
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