कुल पेज दृश्य

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

न इधर के रहे न उधर के हम


शहर के अंधाधुंध विस्तार से कोफ्त होने लगी है। सड़कों पर बढ़ती भीड़, एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में बच्चे, बूढ़े महिलाएं किसी की परवाह न करते लोग। बाइक्स पर सवार थ्री इडियट्स की रोड मस्ती और दूसरों की जान सस्ती। खरदूषण के समान फैलता प्रदूषण। प्रेशर हार्न की कानफोड़ आवाजें, टेम्पो की बहन टाटा मैजिक की मस्ती। रोज-रोज इधर-उधर लगते जाम में फँसते लोग। चौराहे-चौराहे पर नेतामुंड के विशालकाय फ्लेक्सी बोर्ड। कहने को सड़कें सीमेंट की लेकिन उन पर भी उड़ती धूल और प्लास्टिक की पन्नियाँ। जगह-जगह ड्रेनेज से उफनता सड़ांध मारता गंदा जल। लोगों के निस्तेज पथराए भावहीन चेहरे। स्कूटी पर भागती नकाबधारी आधुनिक वीरांगनाएं। पैदल चलने के लिए कोई जगह नहीं। क्या यह वही शहर है, जहाँ आज से चालीस बरस पूर्व मैं आया था। कभी-कभी लगता है कि लौट जाऊं उसी कस्बे में जहाँ से मैं यहाँ आया था। एक दो बार यह विचार कर वहाँ गया भी, लेकिन वह भी बदल गया। जैसा मैं छोड़ आया था वैसा वहाँ अब कुछ नहीं है। उस कस्बे का भी विस्तार हो चुका है। वहाँ भी आसपास के खेतों में कांक्रीट के जंगल खड़े हो चुके हैं। शहरों की देखादेखी सीमेंट की सड़कें और बिजली के हाईमास्ट खंभे खड़े हो रहे हैं। न वह नगर है न कस्बा मानो किन्नर हो गया है। नदी के जिस घाट पर मैं बचपन में दोस्तों के साथ नहाया करता था, उसके ठाट अब नहीं रहे। जिस जंगल में बेरियों से बेर तोड़ते हम दोस्तों के साथ घूमते थे, वहाँ अब बस्तियाँ बस गई हैं। जिन खेतों पर हम भुट्टे और मूंगफली खाने जाते थे, वहाँ भी कालोनियाँ बस गईं हैं। वहाँ की सड़कों पर भी रेलमपेल मची है। पुराने परीचितों के चेहरों पर अनजाने भाव आ गए हैं। अब वे उतनी आत्मीयता से नहीं मिलते। कब आया, सब ठीक है, एक दो दिन रुके तो घर आना कह कर वे अपनी राह चल देते हैं। अब किधर जाऊँ। लगता है वैसी हालत हो गई- न खुदा ही मिला न विसाले सनम, न इधर के रहे न उधर के हम।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें