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मंगलवार, 28 जून 2011

नाना और खाना


मेरे नाना कहा करते थे कि घर से बाहर घोड़ा कसे इतनी देर में जो खाना खा ले वह आदमी। पुराने जमाने में मोटरकार या मोटर बाइक तो इतनी थी नहीं, ज्यादातर लोग बैलगाड़ी या फिर घोड़े पर ही सवारी करते थे। घोड़ा कसने से मतलब है उस पर जीन और रकाब आदि कसना। और इतनी देर में भोजन कर लेना अर्थात दस मिनट में खा लेना। जब मैंने बड़े होने पर प्राकृतिक चिकित्सा की पुस्तकें पढ़ीं तो उनमें लिखा था कि भोजन खूब चबा-चबा कर और धीरे-धीरे स्वाद लेकर करना चाहिए। एक कौर को 32 बार चबाने की बात भी लिखी थी। हांलाकि यह थोड़ा अतिरंजित लगता है। फिर भी भोजन करने में कम से कम आधा-पौना घंटा लगना चाहिए। तब विचार आया कि नाना सही हैं या प्राकृतिक चिकित्सक। यहाँ मैं नाना से असहमत हूँ। असल में भोजन धीरे-धीरे और अच्छी तरह चबा-चबा कर ही किया जाना चाहिए। इससे उसमें लार अच्छी तरह मिलती है और भोजन ठीक से पचता है। पाचन क्रिया हमारे मुख से ही शुरू हो जाती है। कहावत भी कही जाती है-अच्छी तरह चबा कर खाओ, पेट में क्या दाँत लगे हैं। लेकिन कुछ लोग दाँतों से काम नहीं लेते और सब कुछ आँतों पर छोड़ देते हैं। बिना ठीक से चबाए ही भोजन निगल जाते हैं। फिर भोजन एक दिन उन्हें निगल जाता है। आजकल के फटाफट युग में अनेक लोगों को भोजन इत्मीनान से खाने का समय ही नहीं मिलता। कईं लोगों का एक समय का भोजन कार्यालय में या केंटिन में ही होता है। वहाँ कहाँ इत्मीनान, दौड़ते भागते खाओ और पुनः काम में जुट जाओ। लेकिन फिर भी कोई मध्यम मार्ग निकाला जा सकता है। कुछ लोग टीवी देखते-देखते सेक्स-हिंसा के तड़के के साथ भोजन करते हैं। इस तरह से किया भोजन शरीर पर विपरीत असर डालता है। एक तरह से जहर बन जाता है। भोजन सात्विक तरीके से तनावरहित होकर ही किया जाए तो अच्छा। हमेशा भूख लगने पर ही खाएँ और भूख से कम खाएँ। मतलब ठूँसठूँस कर न खाएँ। अगर एक समय का भोजन कार्यस्थल पर करना पड़े तो कम से कम एक समय घर पर इत्मीनान के साथ तो किया ही जा सकता है।

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