सर्वे भवंतु सुखिन, सर्वे संतु निरामय। अगर हम एक आदर्श जीवनशैली अपना लें, तो रोगों के लिए कोई स्थान नहीं है। मैंने अपने कुछ अनुभूत प्रयोग यहां पेश करने की कोशिश की है। जिसे अपना कर आप भी स्वयं को चुस्त दुरुस्त रख सकते हैं। सुझावों का सदैव स्वागत है, कोई त्रुटि हो तो उसकी तरफ भी ध्यान दिलाइए। ईमेल-suresh.tamrakar01@gmail.com
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शनिवार, 18 जून 2011
बचपन से पचपन की ओर
बचपन से पचपन और पचपन से बचपन का एक चक्र मानव जीवन में चलता रहता है। यात्रा जहाँ से शुरू हुई एक दिन वहीं लौटना इस जीवन की नियति है। व्याधि विहिन जीवन जीने की कला यदि आपने सीख ली, तो दवा और दवाखाने के दुष्चक्र से बचा जा सकता है। वरना इस कुचक्र में फँस कर मनुष्य पैसा भी गँवाता है और पीड़ा भी पाता है। स्वयं के साथ-साथ संबंधियों को भी कष्ट देता है। पचपन के बाद भी आहार-विहार की सावधानी वैसे ही जरूरी है, जैसे बचपन में बरती जाती है। एक शिशु के आहार-विहार में जैसी सतर्कता माताएं रखती हैं, वैसी सावधानी पचपन के बाद मनुष्य को आत्मनियंत्रण से बरतनी चाहिए। जवानी में शरीर के महत्वपूर्ण अवयव (अंग) स्वस्थ व सुद्दढ़ होते हैं। इसलिए सबकुछ साध लेते हैं। पचपन के बाद चूँकि काया का क्षरण शुरू हो जाता है, इसलिए वह अनियमितता का अत्याचार बर्दाश्त नहीं कर पाती। ऐसी अवस्था में त्याग की नीति सर्वोत्तम है। क्या खाया जाए और क्या नहीं, इसका सूक्ष्म निरीक्षण-परीक्षण और फिर नियंत्रण ही सफलता का मूल मंत्र है। यदि इस नीति पर चलें तो सुखद मृत्यु की प्राप्ति सुनिश्चित है।
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