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शनिवार, 11 जून 2011

सगुण से निर्गुण


भक्ति मार्ग में दो धाराएं होती हैं। एक है सगुण और दूसरी निर्गुण। सगुण अर्थात पूजा-पाठ द्वारा ईश्वर की आराधना करना। मीरा बाई सगुण उपासक थीं। कबीर दास निर्गुण पंथ पर चलते थे। हमारे जीवन में सगुण और निर्गुण दोनों का समावेश होता है। जैसे एक शिशु है, पहले नौ माह तक उसका दायरा माता के गर्भ तक सीमित रहता है। फिर वह बाहर आता है, तो थोड़ा विस्तार होता है। माता के अलावा अन्य लोगों के सम्पर्क में भी आने लगता है। जब बड़ा होता है, चलने फिरने लगता है, तो दायरा और बढ़ जाता है। पढ़ने जाने लगता है तो दायरा और विस्तारित हो जाता है। जवानी के दिनों में यह विस्तारित दायरा चरम पर होता है। उम्र ढलने के साथ-साथ दायरा फिर सिमटने लगता है। सिमटते-सिमटते जिस पलंग से आगे बढ़े थे, उसी पलंग पर फिर केन्द्रित हो जाता है। सारी मित्रता, रिश्तेदारी सगुण से निर्गुण की तरफ मुड़ने लगती है। जब व्यक्ति जवान होता है, तो यार दोस्तों से प्रायः रोज मिलता है। यह सगुण रिश्ता है। जब उम्र ढल जाती है, तो यह संभव नहीं हो पाता। कभी मिले तो मिले नहीं तो फोन पर ही बात कर ली। फिर फोन भी कम हो जाता है। स्मरण करके ही काम चला लिया जाता है। सारे संबंध सगुण से धीरे-धीरे अपने आप निर्गुण होने लगते हैं। शरीर के परे आत्मा क्या है निराकार, निर्गुण ही तो है। सृष्टि में सगुण-निर्गुण का यह अंतहीन सिलसिला चलता रहता है।
अभी कुछ दिन पहले की ही की बात है, हमारे पड़ोस में प्रभु जोशी रहते थे। तीस साल से हम पड़ोसी थे। लगभग रोज-रोज आते-जाते मिलते और दुआ सलाम होती थी। अब वे यह आवास छोड़ अन्य जगह चले गए। वे हमें भी ले जाना चाहते थे, लेकिन यह सगुण रिश्ता और शायद नसीब में नहीं था। अब दिन में चार बार उनके स्कूटर की आवाज सुनाई नहीं पड़ती। कभी नल नहीं आने पर वे घड़ा बाल्टी लेकर हमारे घर आते। नीचे से आवाज देते सुरेशभाई जरा मोटर चला देना। यदाकदा होमियो दवा लेने आ जाते थे। रोज सुबह कचरा फैंकने मैं मोदी वन की तरफ अब भी जाता हूँ। लौटते समय उनके आँगन में लगे चाँदनी के पेड़ से फूल भी तोड़ता हूँ। लेकिन लगता है वह पेड़ भी उदास है, उस पर फूल अब कम लगते हैं। घर आँगन पहले स्वच्छ दिखता था, अब सूखे पत्तों से पटा पड़ा है। घर से अपनत्व का आभास और संवेदना अब नहीं होती। स्मृति भर बाकी है, जोशीजी से रिश्ता भी अब निर्गुण हो गया।

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