घरेलू चिड़िया गौरैया इन दिनों कम ही दिखाई देती हैं। कारण आधुनिक जीवन में उनके घोसलों के लिए स्थान ही नहीं बचा। इसलिए उनकी तादाद कम होती जा रही है। बहरहाल शनिवार को जब मैं बारबर के यहां केश कर्तन के लिए जा रहा था, तो पड़ोस की शिवकृपा कालोनी में गौरैयाओं का झुंड देख मन बाग-बाग हो गया। एक साथ इतनी गौरैया बरसों बाद देखने को मिलीं। मन को तसल्ली हुई कि गौरैया लुप्त नहीं हुई है, अनुकूल
परिस्थियों में कहीं न कहीं उनका वजूद कायम है। बचपन की याद है खरगोन में हमारा घर कच्चा मिट्टी गारे का बना हुआ था। घर के दरवाजे दूकानों की तरह पूरे खुल जाते थे। दालान में पिताजी ने देवी-देवताओं की कांच की फ्रेम में जड़ी अनेक तस्वीरें लगा रखी थीं। तस्वीरों के पीछे छिपकलियों का अड्डा और गौरैयाओं के घोंसले हुआ करते थे। गौरैया उनमें अंडे देती और फिर उन्हें सेती थी। जब बच्चे निकलते तो उन्हें चोंच में लाकर दाना खिलाती। कुछ समय बाद धीरे-धीरे वे बच्चे थोड़ी-थोड़ी उड़ान भरना सीखते और फिर एक दिन फुर्र से उड़ जाते थे। हम बच्चों के लिए चिड़ियों का यह खेल बड़ा दिलचस्प होता था। घंटों उन्हें देखते रहते, चांवल के दानों का चुग्गा उनके लिए डालते। छोटे बच्चे रोते तो मां उन्हें समझाने के लिए चिड़िया दिखाती। चिड़ियां भी बच्चों के बीच फुदकती रहती थीं। मां हमको अक्सर चिड़ा-चिड़ी की कहानी सुनाती। एक था चिड़ा एक थी चिड़ी। बार-बार सुनने पर भी जब भी यह कहानी सुनते बड़ी अच्छी लगती थी। आजकल के पक्के घरों में चिड़ियाओं के लिए जगह नहीं है। लोग पसंद भी नहीं करते। गंदगी करेगी, कचरा गिराएगी। कुछ शौकीन लोग पिंजरों में रंगबिरंगी चिड़ियाओं को पालते हैं। आजाद परिंदों को कैद में डाल देते हैं। अब खरगोन का घर भी पक्का बन गया है। वहां भी चिड़िया नहीं आती। हमारे पड़ोसी हैं दिलीप चिंचालकरजी उन्हें गौरैया से बड़ा स्नेह है, इतना कि अपनी बिटिया का नाम उन्होंने गौरैया ऱखा है। पिछले दिनों दिल्ली सरकार ने भी गौरैया को राज्य पक्षी घोषित किया था। गौरैया को बचाने और बढ़ाने की मुहिम भी चल पड़ी है। शायद यह उसीका प्रतिफल है कि मुझे एक साथ इतनी गौरैया दिखाई दीं।
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