15 अगस्त 2004 को नईदुनिया परिसर में झंडावंदन के बाद परिसर के बाहर मैंने यह अर्जुन का वृक्ष लगाया था। नौ साल में यह विशाल आकार ग्रहण कर चुका था। महाशिवारात्रि के दिन 10 मार्च को जब दफ्तर पहुंचा तो बाहर महाविनाश का मंजर नजर आया। अर्जुन के साथ कईं हरे भरे विशाल पेड़ों की बलि विकास के नाम पर चढ़ चुकी थी। शहर में हर तरफ विकास हो रहा है, हरे भरे पेड़ और पार्क उजड़ रहे हैं। उनकी जगह सड़कें य़ा पार्किंग बन रहे हैं। अर्जुन, गुलर, नीम, बड़, ईमली और पीपल के वर्षों पुराने दरख्तों की बलि चढ़ रही है। इनकी जगह सजावटी पौधे वैकल्पिक वृक्षारोपण के नाम पर लगाए जा रहे हैं। क्या इन पूजनीय पेड़ों का विकल्प कनेर, सप्तपर्णी और गुलमोहर कर सकते हैं। सजावट के नाम पर ये सुंदर जरूर दिखाई देते हैं, लेकिन उनका विकल्प तो कदापि नहीं हो सकते।
अर्जुन को उत्तरप्रदेश में देहाती लोग कोह के नाम से पुकारते हैं। इसे मराठी में ऐन सादड़ा, बंगला में पियासाल, लेटिन में टरमिनोलिया टोमेन्टासा कहते हैं। श्वेत ऐन और अर्जुन के पत्ते लगभग समान होते हैं। वास्तव में दोनों एक ही प्रजाति के हैं। इसलिए इन्हें सादड़ा और अर्जुन सादड़ा के अलग-अलग नामों से पहचाना जाता है। वैज्ञानिकों के अनुसार अर्जुन हृदयरोगों पर बड़ा लाभकारी है। आयुर्वेद में इसके पत्ते व छाल से निर्मित अर्जुनारिष्ट का महत्व हृदयरोग व अन्य रोगों में सर्वज्ञात है। अर्जुन के बारे में कहा जाता है कि इसमें ईश्वर का वास रहता है जैसा पीपल के बारे में भी कहा जाता है।
1. इसके पत्तों के रस को कान में डालने से कर्णशूल में लाभ होता है।
2.अर्जुन की लकड़ी का महीन चूर्ण अर्जुन सुधा कहलाता है। यह कफनाशक है।
3.अर्जुन के प्रयोग से हृदय की संकोच, विकास और विश्राम तीनों क्रियाएं नियमित हुआ करती हैं। इससे हृदय को विश्राम और बल की प्राप्ति होती है।
4.प्राचीनकाल में आयुर्वेद विशेषज्ञ अस्थिभंग(फ्रेक्चर) होने पर अर्जुन के लेप से इसे ठीक किया करते थे।
5.चोट आदि के बाद रक्तस्राव बंद करने के लिए भी अर्जुन का लेप किया जाता रहा है। इनके अलावा भी अर्जुन के अनेकानेक रोगों में प्रयुक्त होने के प्रमाण आयुर्वेद ग्रंथों में उल्लिखित हैं। लेकिन अफसोस अब इनके कद्रदान नहीं बचे।
दिनेश पेंटर का धंधा भी गया
अर्जुन के नजदीक कुछ और भी दरख्त थे। एक विशाल पेल्टाफोरम के तले पेंटर दिनेश चंचल की दूकान थी। वे कवि हृदय दिनेश बड़े नफासत से गाड़ियों की नम्बर प्लेट पर नम्बर लिखा करते थे। लोग उनसे नम्बर लिखवाने के लिए घंटों इंतजार करते थे। फुरसत में दिनेश पेंटर शेरो शायरी और कविताओं का शौक फरमाते। उनके चाहने वालों का मजमा लगा रहता था। विकास ने इसका भी विनाश कर दिया।
इमली की खट्टी-मिठी यादें
नईदुनिया के मुख्य द्वार पर एक विशाल इमली का दरख्त है। अभी तो खड़ा है पता नहीं जाने कब विकास की बलि चढ़ जाए। इस दरख्त से कईं यादें जुड़ी हैं। 42 साल से तो मैं ही इसे सीना तानकर खड़े देखते आ रहा हूं। इसकी घनी छांव तले एक प्याऊ और वाचमेन की गुमटी है। पुराने समय में जब चलित क्रेन्स का चलन नहीं था, नईदुनिया की विशाल प्रिंटिंग मशीनों को इसी तरख्त ने ट्रकों से नीचे उतरवाया। इसकी मजबूत शाख पर चेन ब्लाक लगाकर मजदूर जोर लगाके हैया के साथ वजनी मशीनों को उतारते और फिर लोहे पाइपों पर लुढ़का कर प्रिंटिंग हाऊस तक ले जाते थे। एक बार एक मशीन गिर कर डेमेज हो गई थी। कंपनी से फिर उसके पार्टस मंगा कर वहां से आए इंजीनियरों की मदद से नईदुनिया के प्रिंटिंग एक्सपर्ट फ्रांसिस जेवियर ने चालू किया था।
यही तो दुर्भाग्य है कि अपनी विरासत को त्याग रहे हैं.
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