आज रक्षा बंधन है और मुझे याद आई गुरुदेव डा.वासुदेव शर्मा की एक कविता जो उन्होंने इसी पर्व के लिए लिखी थी। डा.शर्मा जितने अच्छे होमियोपैथ थे उतने ही अच्छे कवि और लेखक भी थे। व्यायाम वाटिका, गुरुवंदना, शिवगुंजन, दिव्य स्तवन आदि उनकी प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं। इनमें उनका श्रेष्ठ कवित्व झलकता है। रक्षा बंधन पर एक बहन का प्यार भरा गीत है यह--
कुछ श्याम घटा से छनकर,
चमकीली किरणें आवें।
जब मोर नृत्य़ करते हों,
तब इंद्रधनुष तन जावे।
( 2 )
फिर शिशु गुलाब पर झूलें,
कुछ ओस बिंदु चमकीले।
तितली भी सुखा रही हो,
रंगीन पंख निज गीले।
( 3 )
ऊषा की स्मित लाली में,
झरने झरते हों झर-झर।
नव कंज कली खिलती हो,
कोयल की कूक मनोहर।
( 4 )
ऐसे प्रभात में नन्हे,
अलसाई आँखें खोलो।
मधुरस बरसाने वाली,
तुतली वाणी में बोलो।
( 5 )
भूतल पर स्वर्ग उतर कर,
माँ की गोदी में आया।
यह पावन पर्व सुनहला,
सुंदर सपने भर लाया।
( 6 )
मैं बहन तुम्हारी भैया,
झूलों में तुम्हें झुलाऊँ।
मैं गुन गुन गुन गाऊँ,
मैं कुंकुम तिलक लगाऊँ।
( 7 )
इन ज्योति पुंज दीपों में,
बहनों का स्नेह भरा है।
जिनके प्रकाश से प्रतिपल,
पुलकित यह पुण्य धरा है।
Very nice poem. Thanks for sharing.
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