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सोमवार, 9 अप्रैल 2012

खाद्य हड़ताल से बाग-बाग दिल

खाद्य हड़ताल से मेरा दिल चालीस डिग्री गर्मी में भी बाग-बाग हो गया। चाटू ठियों के सामने मक्खियों की तरह भिनभिनाती भीड़ नदारद थी। सड़कों पर यातायात बिना बाधा सरपट दौड़ रहा था। यातायात सिपाही दूकानों के सायबान की छैयां तले रोज से ज्यादा राहत की साँसे ले रहे थे। मधुमेही भी खुश थे, मेनका की तरह मिठाई की दूकानें उनका तप भंग नहीं कर रही थी। वरना शोकेस में सजी मिठाई देख भला किसका मन नहीं डोलता। तप का इल्म जानने वाले विश्वामित्र तो फिसल गए थे। फिर ये तो जन्म से मिठाईमित्र ठहरे। सैकड़ों हजारों लीटर तेल और वनस्पति तलने से बच गए। टनों बेसन, मैदा, आलू और शकर ने लोगों का मैदा नहीं बिगाड़ा।

सबसे बड़ी बचत तो सेहत की हुई। अगर हड़ताल नहीं होती तो यह सब मा्ल लोगों के उदरों में समा कर जाने क्या-क्या उधम करता। कहीं धमनियों में कोलेस्ट्रोल बढ़ाता तो किसी को एसिडिटी पैदा करता। और किसी की शूगर शूटअप कर देता। फिर दवाखानों में भीड़ बढ़ती। सरकारी डाक्टरों और नर्सों का चैन चौपट हो जाता। हाँ प्रायवेट प्रेक्टिस के गब्बरों का मुँह जरूर लटक गया। उन्हें यह भय सता रहा है कि हड़ताल लंबी खींची तो फिर मेरा क्या होगा कालिया। धंधा ही चौपट हो जाएगा। तुड़वा दो हड़ताल, खाने दो लोगों को आलू बड़े और गुलाब जामुन, आने दो मेरे क्लिनिक में। दवा तो दवा दारू वाले भी गमगीन नजर आए। चाय के दौर पर दौर नहीं चले। कईं जेबों में एंटासिड टेबलेटें धरी रह गईं। होटलों के बाल मजदूर बच्चे बड़े खुश नजर आए। पल-पल पर मालिक की टें-टें नहीं सुनाई दे रही थी। ऐ छोरा साब को पानी मार, उधर दो कचौरी दही-चटनी में रख। इधर दो कप कड़क मीठी लगा।

पप्पू के पापा आज आफिस से जल्दी घर लौट आए। आते ही खाना माँगने लगे। भई जल्दी करो, कैंटिन बंद था, न चाय नसीब हुई न कचौरी। रोज दो खाते थे, आज तीन रोटी खा गए। पत्नी खुश थी। यह मुई कैंटिन हमेशा के लिए बंद हो जाए तो अच्छा। कम से कम घर समय पर आएंगे और खाना तो ठीक से खाएंगे। वरना दोस्तों के साथ कभी सराफा तो कभी छप्पन मुँह मारने चले जाते हैं। आज गली में आइस्क्रीम और बरफ वालों की घंटियाँ नहीं बजीं। वरना बंटी-बबली कब मानते। कभी बर्फ का गोला तो कभी आइसक्रीम का कोन। फिर गला खराब और ले जाओ डाक्टर अंकल के यहाँ। सुबह-सुबह दुधियों के भोंपू और साइरनों के स्वरों से नींद में खलल नहीं पड़ा। फेरी वालों की चीखों से भी दिन भर मुक्ति मिली। पड़ोस के बा की खाँसी खखारने की आवाज कम सुनाई दी, क्योंकि उन्हें बीड़ी की लाले पड़ गए। सड़कों पर पान-गुटखों की पिचकारियां कम निकली।
व्यापारी भाइयों का लाख-लाख शुक्रिया। ऐसी हड़ताल कम से कम साल में एक दफा जरूर किया करें। हड़ताल सप्ताह भी मनाया जा सकता है। आखिर आपके भी बीवी-बच्चे हैं। आप दिन रात दूकानों पर खटते रहते हो। वे बेचारे दीदार को तरस जाते हैं। कम से कम साल में तीन-चार दिन हड़ताल कर उनके साथ घूमने निकल जाया करें। कभी शिर्डी तो कभी वैष्णोदेवी। भ्रमण का भ्रमण और पुण्य की पूँजी बड़े सो अलग। कमाई की चिंता मत करो। हड़ताल से पहले मीडिया के माध्यम से माहौल बना दो। लोग इकट्टा खरीद कर ले जाएंगे। जब हड़ताल टूटेगी तो फिर टूट पड़ेंगे। आपकी तो हर हाल में टोपी ऊँची है। बेहाल तो बेचारा उपभोक्ता रहता है। ऐसे दिनों में बिना मोल भाव के घटिया सामान भी धड़ल्ले से निकल जाता है। जब हड़ताल के इतने फायदे हों तो क्यों न हो दिल बाग-बाग। सच सच बोलो आपका भी दिल हुआ कि नहीं।

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