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बुधवार, 21 मार्च 2012

अजल आँखें

उस दिन जैन साहब ने पूछा होमियोपैथी में ड्राय आईज के लिए कोई दवा है क्या। यह इन दिनों आम समस्या है। नेत्रों का
पानी मर चुका है। किसी समय नेत्रों से गंगा-जमुना बहा करती थी। अब तो बहुत करीबी साथी या रिश्तेदार के बिछुड़ने पर भी नेत्र सजल नहीं हो पाते। हमारी सारी संवेदनाएं मानों समाप्त हो गई हैं। महिलाओं के नेत्र तो फिर भी सजल रहते हैं, पुरुषों में सजल नेत्र बिरले ही दिखाई देते हैं। ऐसा क्यों हो रहा है, शायद रिश्तों में वह गर्माहट नहीं रही। जीवन की आपाधापी इतनी बढ़ गई कि व्यक्ति के पास रोने का समय नहीं है। हांलाकि मन का गुबार निकालने के लिए रोना भी जरूरी है। लेकिन आजकल रोने में व्यक्ति को शर्म महसूस होती है। व्यक्तित्व में बनावटीपन ज्यादा हो गया है, सहजता कहीं खो गई है। शायद इसीलिए रोना नहीं आता। कोई देखेगा तो क्या कहेगा-क्या बच्चों जैसा या औरतों जैसा रो रहा है। बचपन में माँ को अन्य महिलाओं के साथ बातें करते हुए बात-बात पर रोते देख कर अचरज होता था। किसी की दुखभरी बातें सुन कर ही वे रोने लग जाती थीं। मेहमानों को बिदा करते समय भी उनके नेत्र सजल हो जाते थे। अब ऐसी आत्मियता और सहजता कहीं नजर ही नहीं आती। रात-दिन कम्प्यूटर पर आँखें गड़ाए काम करते रहते हैं। पलक झपकना भी भूल जाते हैं। तो आँखें क्यों न रुखी हों। ऐसी आँखों का इलाज बेचारी दवा कैसे करेगी। मशहूर शायर मुनव्वर राना ने माँ पर एक पुस्तक लिखी है। पुस्तक के प्राक्कथन में एक बड़ा ही अच्छा शेर है-
मेरे गुनाहों को आँसुओं से धो देती है, माँ जब गुस्से में होती है तो रो देती है।



1 टिप्पणी:

  1. ज्ञान वर्धक .../
    जो आके गिरें दामन सदा वो अश्क नहीं , वो पानी हैं / जो अश्क न छलके आखों से उस अश्क की किमत होती हैं //

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