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रविवार, 24 अक्तूबर 2010

घर का खाना

इन दिनों रोज कहीं न कहीं खाद्य पदार्थों की दुकानों पर छापे पड़ रहे हैं। कभी नकली या मिलावटी मावा, कभी नकली घी पकड़ा जा रहा है। सड़ा.गला अचार और होटलों में बासी खाना मिल रहा है। ज्यूस वाले सड़े फलों का ज्यूस पिला रहे हैं। बासी समोसों को पीस कर ताजे समोसो में यह बासी मसाला भर कर बेचा जा रहा है। लोगों की सेहत के साथ खुले आम खिलवाड़ हो रहा है। पुराने जमाने में इसीलिए लोग घर के खाने पर ही जोर देते थे। अचार खाना है तो घर पर बनाओ और खाओ, बाहर का नहीं चलेगा। मावा और घी भी लोग घर पर ही बना लेते थे। घर की बनी चीजों में जो शुद्धता और सफाई होती है, वह बाजार के बने माल में हो ही नहीं सकती। लेकिन आधुनिक समाज में बाजार में खाने का चलन बढ़ता जा रहा है। शायद इसी कारण बीमारियाँ भी बढ़ रही हैं। डाक्टर के क्लीनिक और दवाखानों पर भीड़ पड़ रही है। पहले लोग मजबूरी में ही बाहर का खाते थे, अब लोग शौक से बाहर का खाते हैं और मजबूरी में घर का। अगर नानी-दादी की बात मान कर घर का खाना ही खाया जाए तो सेहत की सुरक्षा की जा सकती है। बाजार के सड़े गले खाने से तो लाख दर्जे अच्छा है घर का खाना।

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