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शनिवार, 20 जुलाई 2013

शरीर और जेब की सेहत का सफर

नईदुनिया की नई डगर पर कुछ दिनों तक तो दुपहिया वाहन से सफर किया। आए दिन जाम में फंस कर पेट्रोल व्यर्थ बर्बाद करता रहा और धुंआ गटक कर सेहत भी खराब करता रहा। फिर एक दिन पता चला कि कलिग सुदीप मिश्रा कार को गैराज में खड़ी कर आईबस से दफ्तर आने लगे हैं। शायद वे भी जाम से परेशान हो चुके थे। मैंने भी एक दिन आईबस की सवारी की तो बड़ा सुखद अहसास रहा। न इंदौर के बेतरतीब ट्रेफिक में गाड़ी चलाने का टेंशन और न जाम में फंस कर पेट्रोल व समय की बर्बादी का गम। बस स्टाप से घर और दफ्तर तक रोज तीन किलोमीटर पैदल चलने से पैरों की कसरत का लाभ बोनस में। पहले मैं नया दोपहिया वाहन खरीदने की सोच रहा था, क्योंकि लूना बूढ़ी हो चुकी थी और बारिश में बंद हो जाने का खतरा सताता रहता । बाजार में नए दोपहिया के दाम तलाशे तो पता चला सभी गेयरलेस गाड़ियां 50 से 60 हजार रुपए के बीच आती हैं। नई गाड़ी के बावजूद मार्ग की मुसीबतें तो यथावत रहती हीं। इसलिए आईबस के सफर को ही श्रेष्ठ समझा। बीस रुपए रोज में टेंशन फ्री होकर एसी गाड़ी का मजा। दोपहिया न खरीदने से बचे रुपयों की एफडी कर दो तो ब्याज में ही आईबस का किराया निकल जाएगा। इन दिनों आईबस के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़ता जा रहा है। काफी लोगों ने इसे हाथों हाथ अपना लिया है। बाहर से आए स्टूडेंट्स के लिए तो यह आदर्श सवारी है। अगर इंदौर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम पर पहले से ध्यान दिया गया होता तो वाहनों की इतनी भीड़ नहीं बढ़ती। पेट्रोल के आयात पर करोड़ों रुपए की विदेशी मुद्रा गंवाने से बचते, शहर का पर्यावरण इतना प्रदूषित नहीं होता। लोगों की सेहत ठीक रहती। याद आए इंदौर में 1967 में आगमन के वे दिन जब यहां तांगे चलते थे और ज्यादातर लोग साइकलों से सफर करते थे। भेड़ों की तरह वाहनों के झुंड नहीं थे। सड़कों पर पैदल घूमने का भी अपना अलग ही मजा था। अब तो शहर की डगर पर पैदल चलते डर लगता है पता नहीं कब किस दानवी वाहन का ग्रास बन जाएं। पहले पर्यावरण भी बहुत अच्छा था। रोज सुबह एक रजाई ओढ़ने की आवश्यकता पड़ती थी। अब तो ठंड का मौसम कब आता है और चला जाता है पता ही नहीं चलता। बारहों महीने एसी और फैन चलाने पड़ते हैं। बिजली के बिल देख कर पसीना आ जाता है। 

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