जानापाव इंदौर से 45 किलोमीटर दूर मुम्बईे-आगरा राजमार्ग पर मालवा के पठार का दूसरा सबसे उंचा पर्वतीय स्थल है। घने जंगलों से आच्छादित इस स्थल का पौराणिक और आध्यात्मिक महत्व है। ऐसी कथा है कि परशुरामजी के पिता जमदाग्नि ऋषि का यहां आश्रम था। इस तपोभूमि पर परशुरामजी की माता रॆणुकादेवी जो आयुर्वेद की चिकित्सक थी, ने अनेक जड़ी बूटियों के पौधे लगाए थे। वन विभाग को चाहिए कि यहां की इस ख्याति को पुनर्जीवित किया जाए। यहां के प्रदूषण रहित वातावरण में ऐसा उद्यान खूब फैल सकता है। बाबा रामदेव पीथमपुर में पतंजलि की फेक्टरी लगा ही रहे हैं। औषधि निर्माण के लिए जड़ी बूटी यहां से मिल सकती है। जड़ी-बूटियों के कुछ दुर्लभ पौधे हरिद्वार के पतंजलि उद्यान से लाए जा सकते हैं। पहाड़ी पर यहां एक गौशाला भी है। गौशाला का इस्तेमाल भी पंचगव्य के निर्माण में किया जा सकता है। आज के इस युग में जब बीमारियां बढ़ रही हैं और एलोपैथिक चिकित्सा अत्यंत महंगी होती जा रही है, फिर इसके साइड इफैक्ट भी जबरदस्त होते हैं। ऐसे में आयुर्वैद और पंचगव्य गो चिकित्सा को बढ़ावा देने की खास जरूरत है। पहाड़ी पर एक कुंड है, जिससे चम्बल, सरस्वती और नखेरी सहित करीब एक दर्जन नदियों का उद्गम हुआ है। जब हम गए तो कुंड सूखा मिला। भगवान परशुराम, भगवान विष्णु के छठे अवतार माने गए हैं। परशुराम जयंती पर हर साल यहां मेला लगता है। पुराने मंदिर के सामने अब नए भव्य मंदिर का निर्माण चल रहा है। वन विभाग ने इस स्थल को रिजार्ट की तरह विकसित किया है। पहले यहां पैदल चढ़ाई कर जाना पड़ता था। अब पहाड़ी के शीर्ष तक सड़क बना दी गई है। पहाड़ी पर ठहरने और रात रुकने की व्यवस्था भी की गई है। भोजन यहां या तो स्वयं सामान लाकर पकाना पड़ता है या पहाड़ी से नीचे के होटलों में आर्डर कर मंगवाया जा सकता है।
जानापाव से मेरे बचपन की एक स्मृति जुड़ी है। मेरा जन्म धार जिले के धामनोद में हुआ था। महेश्वर में ननिहाल था। मैं तीन वर्ष का था तब मां और नानी के साथ मामा की बैलगाड़ी से यहां लाया गया था। मुझे तो कुछ स्मरण नहीं मगर मां अक्सर बताया करती थी कि मैं जानापाव के कुंड में डूबते डूबते बचा था। अगर तब डूब गया होता तो जानापाव कभी जा ही नहीं पाता। जानापाव जाने की इच्छा सदैव मन में रहती, मगर कभी योग ही नहीं आया। हालांकि इस मार्ग से अनेकों बार इंदौर से खरगोन जाना हुआ। 65 वर्ष बाद 2 जुलाई 2017 को बचपन के दो मित्रों सत्येन्द्र पारीख और जुगल ताम्रकर के साथ जानापाव जाने का संयोग आखिर बन ही गया। हल्की वर्षा से उस रोज मौसम काफी खुशनुमा था। पहाड़ी पर बादल ऐसे नजर आते, मानो हाथों से छू लें। हवा इतनी तेज चल रही थी कि सम्हलो नहीं तो नीचे गिरा दे। रविवार का दिन होने से काफी पर्यटक मौजूद थे। बाइक और कारों से आते हैं यहां दूर दूर से लोग। कई साथ में खाना भी ले आए थे और प्रकृति की गोद में खाने का लुत्फ उठा रहे थे। अधिकांश लोग तो अपने सेलफोन से सेल्फी लेने में मगन थे।
जानापाव से मेरे बचपन की एक स्मृति जुड़ी है। मेरा जन्म धार जिले के धामनोद में हुआ था। महेश्वर में ननिहाल था। मैं तीन वर्ष का था तब मां और नानी के साथ मामा की बैलगाड़ी से यहां लाया गया था। मुझे तो कुछ स्मरण नहीं मगर मां अक्सर बताया करती थी कि मैं जानापाव के कुंड में डूबते डूबते बचा था। अगर तब डूब गया होता तो जानापाव कभी जा ही नहीं पाता। जानापाव जाने की इच्छा सदैव मन में रहती, मगर कभी योग ही नहीं आया। हालांकि इस मार्ग से अनेकों बार इंदौर से खरगोन जाना हुआ। 65 वर्ष बाद 2 जुलाई 2017 को बचपन के दो मित्रों सत्येन्द्र पारीख और जुगल ताम्रकर के साथ जानापाव जाने का संयोग आखिर बन ही गया। हल्की वर्षा से उस रोज मौसम काफी खुशनुमा था। पहाड़ी पर बादल ऐसे नजर आते, मानो हाथों से छू लें। हवा इतनी तेज चल रही थी कि सम्हलो नहीं तो नीचे गिरा दे। रविवार का दिन होने से काफी पर्यटक मौजूद थे। बाइक और कारों से आते हैं यहां दूर दूर से लोग। कई साथ में खाना भी ले आए थे और प्रकृति की गोद में खाने का लुत्फ उठा रहे थे। अधिकांश लोग तो अपने सेलफोन से सेल्फी लेने में मगन थे।
सर, अब मैं भी यहां जाने का विचार कर रहा हूं। देखते हैं कब योग-संयोग बैठता है।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया जानकारी आपकी जानकारी का जीवन में बहुत फायदा मिल रहा है
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